शब्द

वो शब्द छोड़ दिये हैं असहाय
विचरने को खुले आसमान में
वो असहाय हैं, निरुत्तर हैं
कुछ कह नहीं पा रहे या
कभी सुने नहीं जाते
रौंध दिये जाते हैं सरेआम
इन खुली सड़को पर
संसद भवन के बाहर
और न्यायालय में भी
सब बहरे हैं शायद या
अब मेरे शब्दों में दम नहीं
जो निढाल हो जाते हैं
और अक्सर बैखोफ हो घुमते
कुछ शब्द जो भारी पड़ जाते हैं
मेरे शब्दों से...
आवाज़ तक दबा देते हैं
तो क्यों ना छोड़ दूँ
अपने इन शब्दों को
खुलेआम इन सड़कों पर
विचरने दूँ अंजान लोगों में
शायद यूँ ही आ जाये
सलीका इन्हें जीने का ।
© दीप्ति

Comments

SANDEEP PANWAR said…
शायद इसी तरह आ जाये।
Jyoti khare said…
चिंतन परक रचना------आज की व्यथा कथा-----बधाई

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