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Showing posts from May, 2013

आवाज़

आवाज़ जो धरती से आकाश तक सुनी नहीं जाती वो अंतहीन मौन आवाज़ हवा के साथ पत्तियों की सरसराहट में बस महसूस होती है पर्वतों को लांघकर सीमाएं पार कर जाती हैं उस पर चर्चायें की जाती हैं पर रात के सन्नाटे में वो आवाज़ सुनी नहीं जाती दबा दी जाती है सुबह होने पर घायल परिंदे की अंतिम साँस की तरह अंततः दफ़न हो जाती है वो अंतहीन मौन आवाज़ -  दीप्ति शर्मा

रेखाएँ

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हाथ की कुछ रेखाएँ अब गहरी हो गयी हैं ना जाने ये किस बात का अंदेशा है नये जीवन के आगमन का या इस जीवन की मुक्ति का -दीप्ति शर्मा
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एक दरियाफ्त की थी  कभी ईश्वर से दे दो मुट्ठी भर आसमान आज़ादी से उड़ने के लिए और आज उसने ज़िन्दगी का पिंजरा खोल दिया और कहा ले उड़ ले .। - दीप्ति शर्मा

निशान

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किसी एक जगह पर  निशान पड़ गये हैं  मैं तो सीमा पर खड़ी हूँ  और धसते जा रहें हैं पैर  बन्दुक की नोक पर  या सीमा से दलदल पर  ना जाने रेत पर भी पक्के निशान  कैसे पड़ जाते हैं -दीप्ति शर्मा
कहते हैं पुनर्जन्म के फल भोगने पड़ते हैं इस जनम में तो क्या मिल जाता है इस जनम का वो ही प्यार , सोहार्द , अपनापन अगले जनम में भी । - दीप्ति शर्मा 

सरबजीत की याद में

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हिरासत में था कई सालों से यातनाओं से घिरा न्याय की आस लिए मैं जासूस नहीं आम इन्सान था जो गलती कर बैठा ये देश की सीमायें नहीं जानी कभी सब अपना सा लगा पर बर्बरतापूर्ण व्यवहार जो किया वो कब तक सहता आज़ाद हो लौटना था मुझे अपने परिवार के पास पर वो जेहादी ताकतें मुझ पर हावी थीं नफरत का शिकार बना और क्रूरता के इस खेल में मुझे अपनी सच्चाई की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी । सुनो मैं अब भी कहता हूँ मैं जासूस नहीं था पर  अपने ही देश ने मुझे बेसहारा छोड़ दिया था उस पडोसी देश की जेल में परिवार से दूर कितनी ही यातनायें सहीं बार बार हमले हुए पर आख़िरकार इस बार मैं हार गया नहीं जीत पाया मैं हार गया ।

उन्मुक्तता

क्यों मिल गयी संतुष्टि उन्मुक्त उड़ान भरने की जो रौंध देते हो पग में उसे रोते , कराहते फिर भी मूर्त बन सहन करना मज़बूरी है क्या कोई सह पाता है रौंदा जाना ??? वो हवा जो गिरा देती है टहनियों से उन पत्तियों को जो बिखर जाती हैं यहाँ वहाँ और तुम्हारे द्वारा रौंधा जाना स्वीकार नहीं उन्हें तकलीफ होती है क्या खुश होता है कोई रौंधे जाने से ?? शायद नहीं बस सहती हैं और वो तल्लीनता तुम्हारी ओह याद नहीं अब  तुम्हें भेदती है अब वो छुअन जो कभी मदमुग्ध करती तुम्हारी ऊब से खुद को निकालती अब प्रतीक्षा - रत हैं वो खुद को पहचाने जाने का टूटकर भी खुशहाल जीवन बिताने का क्या जीने दोगे तुम उन्हें उस छत के नीचे अधिकार से उनके स्वाभिमान से या रौंधते रहोगे हमेशा !!! अपने अहंकार से इस पुरुषवादी समाज में आखिर कब मिल पायेगी उन्हें उन्मुक्तता ??? -  दीप्ति शर्मा