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Showing posts from 2014
अभी कुछ देरपहले मुझे आवाज़ आयी माँ , मैं यहाँ खुश हूँ सब  बैखोफ घूमते हैं कोई रोटी के लिये नहीं लड़ता धर्म के लिये नहीं लड़ता देश के लिये, उसकी सीमाओं के लिये नहीं लड़ता देखो माँ हम हाथ पकड़े यहाँ साथ में खड़े हैं सबको देख रहे हैं माँ, बाबा से भी कहना कि रोये नहीं हम आयेगें फिर आयेगें पर पहले हम जीना सीख लें फिर सीखायेगें उनको भी जिन्हें जीना नहीं आता मारना आता है माँ, आँसू पोंछकर देखो मुझे मैं दिख रहा हूँ ना!  हम सभी आयेगें पर तभी जब वो दुनिया अपनी सी होगी नहीं तो हम बच्चे उस धरती पर कभी जन्म नहीं लेगें तब दुनिया नष्ट हो जायेगी है ना!  पर उससे पहले माँ, बाबा आप यहाँ आ जाना हमारे पास हम यहीं रहेगें फिर कोई हमें अलग नहीं करेगा तब तक के लिये तुम मत रोना हम सब देख रहे हैं और मैं रोते हुए चुप हूँ बस एक टक देख रही हूँ तुझे बेटा तेरे होने के अहसास के साथ ©दीप्ति शर्मा

मुट्ठियाँ

बंद मुट्ठी के बीचों - बीच एकत्र किये स्मृतियों के चिन्ह कितने सुन्दर जान पड़ रहे हैं रात के चादर की स्याह रंग में डूबा हर एक अक्षर उन स्मृतियों का निकल रहा है मुट्ठी की ढीली पकड़ से मैं मुट्ठियों को बंद करती खुले बालों के साथ उन स्मृतियों को समेट रही हूँ वहीं दूर से आती फीकी चाँदनी धीरे - धीरे तेज होकर स्मृतियों को देदीप्यमान कर आज्ञा दे रही हैं खुले वातावरण में विचरो , मुट्ठियों की कैद से बाहर और ऐलान कर दो तुम दीप्ति हो, प्रकाशमय हो बस यूँ ही धीरे - धीरे मेरी मुट्ठियाँ खुल गयीं और आजाद हो गयीं स्मृतियाँ सदा के लिये ©दीप्ति शर्मा
राजपथ पर चलती मैं अकेली धूप से बचती छतरी ओढे चली जा रही हूँ धूप की तेज़ किरणें छतरी को पार कर मुझे जला रही हैं और मैं सुकडती चली जा रही हूँ , वहीं पास से लोगों का हूजूम निकल रहा है लोग नारे लगा रहे हैं , बलात्कार के दोषियों को फाँसी दो , बडे-बडे पोस्टर लटकाये , बडे बेनर उठाये चले जा रहे हैं , उनमें कुछ परेशान हैं देश की व्यवस्था को लेकर और कुछ भीड में पीछे चल , भीड बढा रहे हैं , वो फोन में अश्लील चित्र / फिल्में देख रहे और मुस्कुरा रहे हैं , साथ में नारी हक में नारे लगा रहे है , वो आज फिल्में देख मुस्कुरा रहे हैं कल बलात्कार कर खिलखिलायेगें अपनी मर्दनगी पर इठलायेगे , ये देख मैं वहीं किनारे सडक पर बैठ गयी और सोचने लगी कि कल फिर क्या ये किसी भीड का हिस्सा बन नारे लगायेगें बलात्कारियों को फाँसी दो ! या फिर किसी और हूजूम में इकट्ठे हों हिंदुस्तान जिन्दाबाद के नारे लगायेगें । © दीप्ति शर्मा
बादलों का अट्टहास वहाँ दूर आसमान में और मूसलाधार बारिश उस पर तुम्हारा मुझसे मिलना मन को पुलकित कर रहा है मैं तुम्हारी दी लाल बनारसी साड़ी में प्रेम पहन रही हूँ कोमल, मखमली तुम्हारी गूँजती आवाज सा प्रेम बाँधा  है पैरों में जिसकी आवाज़ तुम्हारी आवाज सी मधुर है मैं चल रही हूँ प्रेम में तुमसे मिलने को अब ये बारिश भी मुझे रोक ना पाएगी । © दीप्ति शर्मा
मौन की भाषा मौन तक खुली आँखों.. खुले कानों से ना देखी जाती है ना सुनी जाती है ये भाषा.. मौन का आवरण पहन मौन ही में दफन हो जाती है.. © दीप्ति शर्मा
मर्यादाओं की कोख से जन्मी आभासी दुनिया के सच को मुखरित कर अहसास में बदलती एक अन्तहीन आवाज़ हूँ मैं । - दीप्ति शर्मा
मैं जी रही हूँ प्रेम अँगुली के पोरों में रंग भर दीवार पर चित्रों को उकेरती तुम्हारी छवि बनाती मैं रच रही हूँ प्रेम रंगों को घोलती गुलाबी, लाल,पीला हर कैनवास को रंगती तुम्हारी रंगत से मैं रंग रही हूँ प्रेम तुम्हारे लिये हर दीवार पर जिस पर तुम सिर टिका कर बैठोगे । ⓒ दीप्ति शर्मा
जब मैं प्रेम लिखूंगी अपने हाथों से, सुई में धागा पिरो कपड़े का एक एक रेशा सिऊगी तुम्हारे लिये मजबूती से कपड़े का एक एक रेशा जोडूंगी और जब उसे पहनने को बढ़ेगे तुम्हारे हाथ तब उस पल उस अहसास से मेरा प्रेम अमर हो जायेगा.. ⓒ दीप्ति शर्मा

तुम

मैंने तुम्हारे पसन्द की चूल्हे की रोटी बनायी है  वही फूली हुयी करारी सी  जिसे तुम चाव से खाते हो  और ये लो हरी हरी  खटाई वाली चटनी  ये तुम्हें बहुत पसन्द हैं ना !!!  पेट भर खा लेना  और अपने ये हाथ  यहाँ वहाँ ना पौछना  मैंने अलमारी में  तुम्हारी पसन्द के सफेद  बेरंगे रूमाल रख दिये हैं  ले लेना उन्हें....  सब रंग बिरंगे रूमाल  हटा दिये हैं वहाँ से  वो सारे रंग जो तुम्हें पसन्द नहीं  अब वो दूर दूर तक नहीं हैं  तुम खुश तो हो ना??  सारे घर का रंग भी  सफेद पड़ गया है  एकदम फीका  बेरंगा सा...  मैंने भी तो तुम्हारी पसन्द की  सफेद चुनर ओढ़ ली है  अब तो तुम मुस्कुराओगे ना??  साँझ भी हो चली अब  पंछी भी घरौंदे को लौटने लगे  तुम कहाँ हो??  आ जाओ!!  मैं वहीं आँगन में  नीम के पेड़ के नीचे  उसी खाट पर बैठी हूँ  जो तुमने अपने हाथों से बुनी थी  कह कर गये थे ना तुम  कि अबकि छुट्टीयों में आओगे  वो तो कबकि बीत गयी  तुमने कहा था  मैं सम्भाल कर रखूँ  हर एक चीज तुम्हारी पसन्द की  देखो सब वैसा ही है   तो तुम आते क्यों नहीं  क्यों ये लोग तुम्हारी जगह  ये वर्दी, ये मेड
ये आँसू नहीं हैं पागल किसने कहा तुमसे? कि मैं रोती हूँ अब मैं नहीं रोती मेरे भीतर बरसों से जमी संवेदनाएँ पिघल रही हैं धीरे धीरे भावनाएँ रिस रही हैं खून जम गया है और मन की चट्टानें टूट रही हैं मेरे पैर थक गये हैं और मैं थम गयी हूँ स्थिर हो गयी हूँ तो अब भला मैं क्यों रोऊँगी??  - दीप्ति शर्मा

हे पार्थ !

हे पार्थ ! मैं सिंहासन पर बैठा अपने धर्म और कर्म से अंधा मनुष्य , मैं धृतराष्ट्र देखता रहा , सुनता रहा और द्रोपती के चीरहरण में सभ्यता , संस्कृति तार तार हुयी धर्म के सारे अध्याय बंद हुए , तब मैं बोला धर्म के विरुद्ध जब मैं अंधा था पर आज आँखें होते हुए भी नहीं देख पाता आज सिंहासन पर बैठा मैं मौन हूँ उस सिंहासन से बोलने के पश्चात हे पार्थ सदियों से आज तक मैं मौन हूँ। दीप्ति शर्मा

कंकाल

शमशान में रात दिन जलती चिताओं का उड्ता धुँआ सबको दिखता है पर तिल तिल जल, मन का कंकाल बनना किसी को नहीं दिखता । -- दीप्ति शर्मा

सपना

घुप्प अँधेरा पसरा  है बाहर दूर खलियानों से भीतर के कोनों तक । एका एक बारिस और छत से गिरता पानी बिजली की गडगडाहट भी डरा रही है । दियासलाई के डिब्बे में भी सिर्फ एक दियासलाई , उससे भी लालटेन जला दी , वो भी भप भप कर जलती दिख रही है , शायद तेल कम है । तभी पास में रखे उजले डिब्बे की तरफ निगाह गयी जो अपनी रौशनी से जगमगा रहा है उसे हाथ में उठा लिया , जिसमें जुगनू आपस में भिड रहे हैं , जो मैंने एक एक कर जमा किये जैसे कह रहे हों मैं तुझसे ज्यादा चमकता हूँ और इस भिंडत में , और ज्यादा रौशन हो रहे हैं । उन्हें देखते हुए सब भूल दिवार पर सिर टिका बैठ गयी तभी तेज़ आँधी और तुफान आने से मेरे हाथों से , वो जुगनुओं का डिब्बा छुट गया जुगनू छितरा गये बिखर गये इधर उधर मैं हतप्रत बस देखती रही इतना अँधेरा !!!! अब लालटेन भी बुझ चुकी है पेड उखड गये हैं , पौधे टूट गये हैं मेरी छत भी तो उड गयी है उस तूफान में सब बिखर गया । तभी दूर से आती हल्की रौशनी अब और तेज़ होने लगी हर तरफ फैल गयी और मैं मलते देखती हूँ कि सवेरा हो गया वो आँधी , बारिस , अँधेरा सब पीछे छूट गया वो मेरा भ

दमित इच्छा

इंद्रियों का फैलता जाल भीतर तक चीरता माँस के लटके चिथड़े चोटिल हूँ बताता है मटर की फली की भाँति कोई बात कैद है उस छिलके में जिसे खोल दूँ तो ये इंद्रियाँ घेर लेंगी और भेदती रहेंगी उसे परत दर परत लहुलुहाल होने तक बिसरे खून की छाप के साथ क्या मोक्ष पा जायेगी या परत दर परत उतारेगी अपना वजूद / अस्तित्व या जल जायेगी चूल्हें की राख की तरह वो एक बात जो अब सुलगने लगी है। ----दीप्ति शर्मा
रुको !!! मैं कहता रहा तुम्हें आखिर कब तक मेरी आवाज़ तुम्हें मौन प्रतित होती रहेगी  । --- दीप्ति शर्मा